Thursday, September 23, 2010

यादों का मकाँ ...

इस मकान में बंजरपन है
ख़ामोशी है , साया है
जबसे तेरी याद बसाई
तबसे कोई न आया है

जहाँ सारा तो रोशन लेकिन
मेरा घर अँधियारा है
बीते पल ही जुगनू बनकर
करते अब उजियारा हैं

इस बंजर मन , बीहड़पन में
आँखें भी सुनसान हुई
अब इस सड़क से अपने घर तक
रोज़ अकेले जाना है

चाँद भी टूटा ,दरख़्त भी सूखे
ये संसार हमारा है
ये डालें रोशन नहीं है अब
यहाँ बसेरा अंधेरो ने डाला है

जब याद तुम्हारी आती है
तो बारिश आँखें करती हैं
इस सैलाब में डूबते उतरते हैं
मुकद्दर ही बेचारा है

जब इन्साफ के दिन हम रोकर
खुदा के घर को जाएंगे
तब उस से पूछेंगे
किस गुनाह की सज़ा है मालिक
खुद दीवानगी का मारा है

मरके सबको सुकूँ है मिलता
हमको जीते जी क्यों मारा है
बेचैनी सी है मरके भी
आखिर क्या क़ुसूर हमारा है

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