Sunday, September 11, 2011

दिशाहीन...

ज़िन्दगी का उन्माद था तब
अब जीने के उम्मीद नहीं
ख़्वाबों से सजी थी ज़िन्दगी
पर अब आँखों में नींद नहीं
अथाह प्रेम की चाह थी तब
अब चाहत से भी प्रेम नहीं
शब्द बाण पारंगत थे तब
अब बातों में वो तेज नहीं
दुश्मन थी सारी दुनिया तब
मृत से भी कोई द्वेष नहीं
हवा में चलता था कभी
अब पैरों के नीचे ज़मीन नहीं
पल पल तब उत्साह था
अब अगाध से भी नेह नहीं
क्या हो गया है जाने
जीवन के उत्साह को
ताक़ पर रख दिया है सब कुछ
जाने किसकी चाह है

"एक सादगी के पीछे चलता रहा मगर,
'बेखुद' हूँ मुझे चैन आता क्यों नहीं "

3 comments:

  1. Zidagi toh apni mukkamal hi thi,tujhe dekha toh 'bekhud' adhoori si lagi :)

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  2. @xyz....bahut accha prayas...koshish karte rahiye...

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  3. उम्मीद को जिंदा रखना बहुत जरुरी है..
    यूँ तो जीवन मैं आते जाते हैं सुख-दुःख
    विषम परिस्थितियाँ
    कुछ परेशानियाँ .,उतार-चढ़ाव.,
    परन्तु खुद से अपना नाता न तोड़ो..
    यूँ उम्मींद न छोडो..

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