Tuesday, October 18, 2011

ज़िन्दगी का सफ़र...क्या खोया क्या पाया....

कितनी  रौशनी  है  शहर  के  आसमान  में
ना चाँद  है  ना  सितारों  का  निशाँ
कितनी  भीड़   है  इस  शहर  की  ज़मी  पे
ना  उम्मीद  है  ना  मंजिल  ना  इंसान

हम  मशीनों  में  बदल  रहे  हैं
भेड़  चाल  में  चल  रहे  हैं
सुकून  की  बातें  तो  बहुत  होती   है
लेकिन  सुकून  पाने  को  मचल  रहे  हैं

खोजते  हैं  अपने  बचपन  को
शरारतें  और  लड़कपन   को
पैसा  कमाने  के  लिए  सब  गवां  दिया
नशे  में  डुबो  दिया  अपने  क्रंदन  को

कैसे  बचपन  से  बड़े  होने  के  सपने  पाले
बड़े  होकर  आसमान  छु  लेने  के  इरादे
कैसे  धीरे  धीरे  सब  कुछ  भुला  बैठे
वो  दोस्ती ,वो  रिश्ते , वो  खुद  से  किये  वादे

अब  फिर  से  बचपन  जीने  को  मनन  करता  है
माँ  की  गोद में  सोने  को  मन   मरता  है
दिनभर  खेलके  भी  थकान  नहीं  होती  थी
साड़ी  परिकल्पनाये कहानियों  मैं  होती  थी  

अब सब खो गया सा लगता है
रात का बीता सपना सा लगता है
रात तो चली जाती है लेकिन
नयी सुबह का आना कल्पना सा लगता है



फना हो गए जिसकी आरज़ू में
ना वो सफ़र ख़त्म हुआ ना ,ना वो अंजाम मिला 

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