कुछ अनमनी सी कुछ बेचैन हो
क्यों अपनी नींदे उड़ाए बैठी हो
मुहब्बत में गिरकर फिर से संभल रहा हूँ में
क्या इस बात पर दिल दुखाये बैठी हो
जब प्रेम समंदर के उस झंझावात में
फंसा था तेरे साथ में
कैसे दामन थाम लिया किसी और का
छोड़ के मुझको उस हालात में
तब मेरी बेबसी पे तरस नहीं आया
और अब मुह फुलाए बैठी हो
किसी और से मुहब्बत न हो जाये
कम तेरी अहमियत न हो जाये
कहीं यही सोचकर तो नहीं
नज़रें चुराए बैठी हो
मैंने तो चाहा साथ रहूँ
थाम के तेरा हाथ रहूँ
मिसालें लोग दे हमारे प्यार की
रहते हैं जैसे दिन-रात रहूँ
दूर जाने का कदम तूने उठाया था
शायद मुझसे बेहतर किसी और को पाया था
तुझे खुश देख के कुछ न बोल पाया था
आज भी एक ही ख्वाहिश है की
मेरी ख़ुशी में मेरे साथ रहो
कैसे भी हो हालात रहो
सिर्फ एक आरज़ू है
की मुहब्बत नहीं तो कम से कम साथ ही दे दो
हाथ नहीं दे सकती हाथों में तो एक मीठी बात ही दे दो
तेरी हर ख़ुशी में शामिल हुआ था मैं
मेरी ख़ुशी के लिए ,झूठ मूठ ही सही
खुश होने की सौगात ही दे दो
Tuesday, July 20, 2010
Monday, July 19, 2010
विरह वेदना...
परबत पर बादल छाये
एक बूँद गिरी हसरत से
फिर याद तुम्हारी आई
फिर मिलने को दिल तरसे
मौसम ने ली अंगड़ाई
बरसे घन भी झर झर के
फिर याद तुम्हारी आई
फिर मिलने को दिल तरसे
एक आग का दरिया है ये
हम निकले सौ दरिया से
हम अग्निपरीक्षा देकर भी
रहते है क्यों डर डर के
जब विरह वेदना छाई
तब पीर बही थी जिगर से
जब पाया तुमको खोकर
तब छूटे हम इस डर से
तुम नैन चुरा के चल दी
हम तकते रहे नज़र से
वो प्रियतम ऐसा रूठा
उस एक नज़र को तरसे
जब जोर से दामिनी कौंधी
तुम लिपट गयी थी सिहर के
जब याद वो मंज़र आया
फिर मिलने को दिल तरसे
में प्रेम नगर का राही
भटका पथिक डगर से
तुम मृगतृष्णा सी मुझको
ले गयी कहाँ किस दर पे
इस सेहरा में आ भटका
पूछूँ तुझको हर कंकर से
हर जगह में तुझको देखूं
पर मिलने को दिल तरसे
प्रेम सरोवर घट पे
में बैठा प्यास से भर के
पर तेरा ह्रदय न पिघला
तेरे नेह का मेह न बरसे
तू नीर गगरिया लेकर
आ रही है दूर डगर से
तृष्णा में भी सुख पाया
फिर मिलने को दिल तरसे
एक आलिंगन सा करके
रससिक्त करके मुझे भर दे
और जोड़ दे टूटे बंधन
अपने सुन्दर कोमल कर से
एक स्पर्श ही तेरा पा लूं
ये सोच के निकला घर से
तू दरस न जब तक देगी
न जाऊंगा मैं इस दर से
लौटा दे मेरा जीवन
ये प्रेम परस्पर कर के
फिर आजाये यूँ सावन
की दिल मिलने को न तरसे
एक बूँद गिरी हसरत से
फिर याद तुम्हारी आई
फिर मिलने को दिल तरसे
मौसम ने ली अंगड़ाई
बरसे घन भी झर झर के
फिर याद तुम्हारी आई
फिर मिलने को दिल तरसे
एक आग का दरिया है ये
हम निकले सौ दरिया से
हम अग्निपरीक्षा देकर भी
रहते है क्यों डर डर के
जब विरह वेदना छाई
तब पीर बही थी जिगर से
जब पाया तुमको खोकर
तब छूटे हम इस डर से
तुम नैन चुरा के चल दी
हम तकते रहे नज़र से
वो प्रियतम ऐसा रूठा
उस एक नज़र को तरसे
जब जोर से दामिनी कौंधी
तुम लिपट गयी थी सिहर के
जब याद वो मंज़र आया
फिर मिलने को दिल तरसे
में प्रेम नगर का राही
भटका पथिक डगर से
तुम मृगतृष्णा सी मुझको
ले गयी कहाँ किस दर पे
इस सेहरा में आ भटका
पूछूँ तुझको हर कंकर से
हर जगह में तुझको देखूं
पर मिलने को दिल तरसे
प्रेम सरोवर घट पे
में बैठा प्यास से भर के
पर तेरा ह्रदय न पिघला
तेरे नेह का मेह न बरसे
तू नीर गगरिया लेकर
आ रही है दूर डगर से
तृष्णा में भी सुख पाया
फिर मिलने को दिल तरसे
एक आलिंगन सा करके
रससिक्त करके मुझे भर दे
और जोड़ दे टूटे बंधन
अपने सुन्दर कोमल कर से
एक स्पर्श ही तेरा पा लूं
ये सोच के निकला घर से
तू दरस न जब तक देगी
न जाऊंगा मैं इस दर से
लौटा दे मेरा जीवन
ये प्रेम परस्पर कर के
फिर आजाये यूँ सावन
की दिल मिलने को न तरसे
खलिश और कशिश
खामोश रात खामोश सुबह
खामोश सा है हर लम्हा
कितनी मायूसी है उमीदो पर
ज़िन्दगी है कितनी वीरान और तन्हा
सूखे दरख्तों से झांकती उम्मीदें
और गम्घीन पहाड़ों पे गिरती शाम
एक सरगोश झोंका हवा का
ले जाता है धीरे से तेरा नाम
तेरे नाम का ये नूर है
रोशन हो जाती है शब् - ए -सेहरा
सूखी उम्मीद पे गुल खिलते हैं
जलवा अफरोज हो जब ये चेहरा
तेरे जिस्म को छूकर चलने वाली हवा
महका देती है इस बंजर मनन को
खिजा को बेदखल कर देती है बहार
मुहब्बत करूँ या नहीं बाधा देती है उलझन को
मुहब्बत न करने की कशमकश ,और करने की कशिश
इकरार सुनने की तम्मान्ना ,और इनकार सुनने से खलिश
इकरार सुनके दिल का यूँ बैग बैग हो जाना
नज़रें मिलाना , बात करना और शर्माना
निगाहे गैर से मंसूब होकर ,मेरे पहलू में आ जाना
पलकें उठा कर नज़रे मिलना और मिल के झुक जाना
ये मंज़र देख कर दिल बेईमान होता है
निगाहें पाक होती है मगर बदनाम होता है
क्यों तुमसे कोई मुहब्बत न करे एय खुदा
बदनाम हो तो क्या ,फिर भी नाम होता है
मगर ये मौसम कहाँ हमेशा ठहरता है
जुदाई का आलम मुहब्बत के साथ चलता है
ज़रा सी दूरी हो के , दिल बेज़ार होता है
इस sheh पे कहाँ किसी का जोर चलता है
टूट गया , बिखर गया , हो के ज़र्रा ज़र्रा
चला मैं अपने खुदा को मिलने
जब फुर्सत मिले तुझे दुनिया से
तो आ जाना मुझे रुखसत करने
एक शेर :
ये इश्क फ़कत पहाडा नहीं
गणित का हिस्साब यहाँ लगा नहीं करता
दो मिल के भी एक ही हो जाते हैं
हासिल उनको करके खुद का कुछ बाकी नहीं रहता
खामोश सा है हर लम्हा
कितनी मायूसी है उमीदो पर
ज़िन्दगी है कितनी वीरान और तन्हा
सूखे दरख्तों से झांकती उम्मीदें
और गम्घीन पहाड़ों पे गिरती शाम
एक सरगोश झोंका हवा का
ले जाता है धीरे से तेरा नाम
तेरे नाम का ये नूर है
रोशन हो जाती है शब् - ए -सेहरा
सूखी उम्मीद पे गुल खिलते हैं
जलवा अफरोज हो जब ये चेहरा
तेरे जिस्म को छूकर चलने वाली हवा
महका देती है इस बंजर मनन को
खिजा को बेदखल कर देती है बहार
मुहब्बत करूँ या नहीं बाधा देती है उलझन को
मुहब्बत न करने की कशमकश ,और करने की कशिश
इकरार सुनने की तम्मान्ना ,और इनकार सुनने से खलिश
इकरार सुनके दिल का यूँ बैग बैग हो जाना
नज़रें मिलाना , बात करना और शर्माना
निगाहे गैर से मंसूब होकर ,मेरे पहलू में आ जाना
पलकें उठा कर नज़रे मिलना और मिल के झुक जाना
ये मंज़र देख कर दिल बेईमान होता है
निगाहें पाक होती है मगर बदनाम होता है
क्यों तुमसे कोई मुहब्बत न करे एय खुदा
बदनाम हो तो क्या ,फिर भी नाम होता है
मगर ये मौसम कहाँ हमेशा ठहरता है
जुदाई का आलम मुहब्बत के साथ चलता है
ज़रा सी दूरी हो के , दिल बेज़ार होता है
इस sheh पे कहाँ किसी का जोर चलता है
टूट गया , बिखर गया , हो के ज़र्रा ज़र्रा
चला मैं अपने खुदा को मिलने
जब फुर्सत मिले तुझे दुनिया से
तो आ जाना मुझे रुखसत करने
एक शेर :
ये इश्क फ़कत पहाडा नहीं
गणित का हिस्साब यहाँ लगा नहीं करता
दो मिल के भी एक ही हो जाते हैं
हासिल उनको करके खुद का कुछ बाकी नहीं रहता
ज़िन्दगी तुझ बिन..
तू नहीं थी तब कोई ग़म नहीं था
आरजू पे बंदिश नहीं थी
ख्यालातों का सितम नहीं था
बड़ी मुक़द्दस गुज़र रही थी ज़िन्दगी
बेवफाई और वफ़ा का भरम नहीं था
तूने दे दिया रौशनी से डरने का मकसद
पहले चाँद रोशन ज़रूर था लेकिन नम नहीं था
अब सर झुका के देखते हैं अपने ही साए को
पहले वो ग़ुलाम था हाकिम नहीं था
तेरी निगाहों में जो मंज़र दिखा
उसे हासिल करने का जुनूँ कम नहीं था
नज़रें चुराने लगी तू मिला कर
शायद अब मैं तेरा सनम नहीं था
अश्को से जब जलने लगी थी निगाहें
लबो से लगाया था क्या वो मरहम नहीं था
अब तो रूह भी ज़र्रा ज़र्रा बिखरने लगी
पहले साए पे भी कोई ज़खम नहीं था
महफ़िल -ए -जन्नत में भी रोती है शमा इन दिनों
पहले जलते थे दोज़ख की आग में
लेकिन इन परवानो को कोई ग़म नहीं था
कदमबोसी करती थी हवाएं उन दिनों
दूर तक उडती थी आंधियां साथ लेकर
तब हवाएं हलकी थी ,तब मुहब्बतों ने भिगोया न था उन्हें
तब उनमे अश्को का नम नहीं था
सेहरा में सजदा करता हूँ मैं
जहाँ रेत पर तेरा कदम कभी था
ज़िन्दगी भर के लिए बहारों ने मुह मोड़ लिया
पहले खिज़ा तो थी पर दर्द का मौसम नहीं था
चाहा मौत आ जाये इस तन्हाई से निजात मिले
ज़िन्दगी ने धोखा दिया तो मौत का भी दामन नरम नहीं था
शायद बेवफाई का रुख अपना लिया उसने भी
वरना मरने के बाद भी लेने नहीं आया
मौत का फ़रिश्ता इतना बेरहम नहीं था
आरजू पे बंदिश नहीं थी
ख्यालातों का सितम नहीं था
बड़ी मुक़द्दस गुज़र रही थी ज़िन्दगी
बेवफाई और वफ़ा का भरम नहीं था
तूने दे दिया रौशनी से डरने का मकसद
पहले चाँद रोशन ज़रूर था लेकिन नम नहीं था
अब सर झुका के देखते हैं अपने ही साए को
पहले वो ग़ुलाम था हाकिम नहीं था
तेरी निगाहों में जो मंज़र दिखा
उसे हासिल करने का जुनूँ कम नहीं था
नज़रें चुराने लगी तू मिला कर
शायद अब मैं तेरा सनम नहीं था
अश्को से जब जलने लगी थी निगाहें
लबो से लगाया था क्या वो मरहम नहीं था
अब तो रूह भी ज़र्रा ज़र्रा बिखरने लगी
पहले साए पे भी कोई ज़खम नहीं था
महफ़िल -ए -जन्नत में भी रोती है शमा इन दिनों
पहले जलते थे दोज़ख की आग में
लेकिन इन परवानो को कोई ग़म नहीं था
कदमबोसी करती थी हवाएं उन दिनों
दूर तक उडती थी आंधियां साथ लेकर
तब हवाएं हलकी थी ,तब मुहब्बतों ने भिगोया न था उन्हें
तब उनमे अश्को का नम नहीं था
सेहरा में सजदा करता हूँ मैं
जहाँ रेत पर तेरा कदम कभी था
ज़िन्दगी भर के लिए बहारों ने मुह मोड़ लिया
पहले खिज़ा तो थी पर दर्द का मौसम नहीं था
चाहा मौत आ जाये इस तन्हाई से निजात मिले
ज़िन्दगी ने धोखा दिया तो मौत का भी दामन नरम नहीं था
शायद बेवफाई का रुख अपना लिया उसने भी
वरना मरने के बाद भी लेने नहीं आया
मौत का फ़रिश्ता इतना बेरहम नहीं था
Subscribe to:
Posts (Atom)