Tuesday, July 20, 2010

मेरी आरज़ू...

कुछ अनमनी सी कुछ बेचैन हो
क्यों अपनी नींदे उड़ाए बैठी हो
मुहब्बत में गिरकर फिर से संभल रहा हूँ में
क्या इस बात पर दिल दुखाये बैठी हो

जब प्रेम समंदर के उस झंझावात में
फंसा था तेरे साथ में
कैसे दामन थाम लिया किसी और का
छोड़ के मुझको उस हालात में
तब मेरी बेबसी पे तरस नहीं आया
और अब मुह फुलाए बैठी हो

किसी और से मुहब्बत न हो जाये
कम तेरी अहमियत न हो जाये
कहीं यही सोचकर तो नहीं
नज़रें चुराए बैठी हो

मैंने तो चाहा साथ रहूँ
थाम के तेरा हाथ रहूँ
मिसालें लोग दे हमारे प्यार की
रहते हैं जैसे दिन-रात रहूँ

दूर जाने का कदम तूने उठाया था
शायद मुझसे बेहतर किसी और को पाया था
तुझे खुश देख के कुछ न बोल पाया था
आज भी एक ही ख्वाहिश है की
मेरी ख़ुशी में मेरे साथ रहो
कैसे भी हो हालात रहो

सिर्फ एक आरज़ू है
की मुहब्बत नहीं तो कम से कम साथ ही दे दो
हाथ नहीं दे सकती हाथों में तो एक मीठी बात ही दे दो
तेरी हर ख़ुशी में शामिल हुआ था मैं
मेरी ख़ुशी के लिए ,झूठ मूठ ही सही
खुश होने की सौगात ही दे दो

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