Monday, July 19, 2010

ज़िन्दगी तुझ बिन..

तू नहीं थी तब कोई ग़म नहीं था
आरजू पे बंदिश नहीं थी
ख्यालातों का सितम नहीं था
बड़ी मुक़द्दस गुज़र रही थी ज़िन्दगी
बेवफाई और वफ़ा का भरम नहीं था

तूने दे दिया रौशनी से डरने का मकसद
पहले चाँद रोशन ज़रूर था लेकिन नम नहीं था
अब सर झुका के देखते हैं अपने ही साए को
पहले वो ग़ुलाम था हाकिम नहीं था

तेरी निगाहों में जो मंज़र दिखा
उसे हासिल करने का जुनूँ कम नहीं था
नज़रें चुराने लगी तू मिला कर
शायद अब मैं तेरा सनम नहीं था

अश्को से जब जलने लगी थी निगाहें
लबो से लगाया था क्या वो मरहम नहीं था
अब तो रूह भी ज़र्रा ज़र्रा बिखरने लगी
पहले साए पे भी कोई ज़खम नहीं था

महफ़िल -ए -जन्नत में भी रोती है शमा इन दिनों
पहले जलते थे दोज़ख की आग में
लेकिन इन परवानो को कोई ग़म नहीं था

कदमबोसी करती थी हवाएं उन दिनों
दूर तक उडती थी आंधियां साथ लेकर
तब हवाएं हलकी थी ,तब मुहब्बतों ने भिगोया न था उन्हें
तब उनमे अश्को का नम नहीं था

सेहरा में सजदा करता हूँ मैं
जहाँ रेत पर तेरा कदम कभी था
ज़िन्दगी भर के लिए बहारों ने मुह मोड़ लिया
पहले खिज़ा तो थी पर दर्द का मौसम नहीं था

चाहा मौत आ जाये इस तन्हाई से निजात मिले
ज़िन्दगी ने धोखा दिया तो मौत का भी दामन नरम नहीं था
शायद बेवफाई का रुख अपना लिया उसने भी
वरना मरने के बाद भी लेने नहीं आया
मौत का फ़रिश्ता इतना बेरहम नहीं था

1 comment:

  1. third stanza forth line it has to be my and not me' 4th stanza is beautiful, infact no words to express,kadam bosi hai ya kadam bom si?and the last stanza wow man aap to kavi sammelan me bhag le sakte hain all poetry ke to aap ke samne chote asarphen hain, you are really doing a wonderful job, am planning to be in banglore and if it happens i shall surely come and hear yous through your mouth for the effect of poetry is there only when heard

    ReplyDelete