Monday, July 19, 2010

खलिश और कशिश

खामोश रात खामोश सुबह
खामोश सा है हर लम्हा
कितनी मायूसी है उमीदो पर
ज़िन्दगी है कितनी वीरान और तन्हा

सूखे दरख्तों से झांकती उम्मीदें
और गम्घीन पहाड़ों पे गिरती शाम
एक सरगोश झोंका हवा का
ले जाता है धीरे से तेरा नाम

तेरे नाम का ये नूर है
रोशन हो जाती है शब् - ए -सेहरा
सूखी उम्मीद पे गुल खिलते हैं
जलवा अफरोज हो जब ये चेहरा

तेरे जिस्म को छूकर चलने वाली हवा
महका देती है इस बंजर मनन को
खिजा को बेदखल कर देती है बहार
मुहब्बत करूँ या नहीं बाधा देती है उलझन को

मुहब्बत न करने की कशमकश ,और करने की कशिश
इकरार सुनने की तम्मान्ना ,और इनकार सुनने से खलिश
इकरार सुनके दिल का यूँ बैग बैग हो जाना
नज़रें मिलाना , बात करना और शर्माना
निगाहे गैर से मंसूब होकर ,मेरे पहलू में आ जाना
पलकें उठा कर नज़रे मिलना और मिल के झुक जाना

ये मंज़र देख कर दिल बेईमान होता है
निगाहें पाक होती है मगर बदनाम होता है
क्यों तुमसे कोई मुहब्बत न करे एय खुदा
बदनाम हो तो क्या ,फिर भी नाम होता है

मगर ये मौसम कहाँ हमेशा ठहरता है
जुदाई का आलम मुहब्बत के साथ चलता है
ज़रा सी दूरी हो के , दिल बेज़ार होता है
इस sheh पे कहाँ किसी का जोर चलता है

टूट गया , बिखर गया , हो के ज़र्रा ज़र्रा
चला मैं अपने खुदा को मिलने
जब फुर्सत मिले तुझे दुनिया से
तो आ जाना मुझे रुखसत करने


एक शेर :
ये इश्क फ़कत पहाडा नहीं
गणित का हिस्साब यहाँ लगा नहीं करता
दो मिल के भी एक ही हो जाते हैं
हासिल उनको करके खुद का कुछ बाकी नहीं रहता

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