Monday, July 19, 2010

विरह वेदना...

परबत पर बादल छाये
एक बूँद गिरी हसरत से
फिर याद तुम्हारी आई
फिर मिलने को दिल तरसे

मौसम ने ली अंगड़ाई
बरसे घन भी झर झर के
फिर याद तुम्हारी आई
फिर मिलने को दिल तरसे

एक आग का दरिया है ये
हम निकले सौ दरिया से
हम अग्निपरीक्षा देकर भी
रहते है क्यों डर डर के

जब विरह वेदना छाई
तब पीर बही थी जिगर से
जब पाया तुमको खोकर
तब छूटे हम इस डर से

तुम नैन चुरा के चल दी
हम तकते रहे नज़र से
वो प्रियतम ऐसा रूठा
उस एक नज़र को तरसे

जब जोर से दामिनी कौंधी
तुम लिपट गयी थी सिहर के
जब याद वो मंज़र आया
फिर मिलने को दिल तरसे

में प्रेम नगर का राही
भटका पथिक डगर से
तुम मृगतृष्णा सी मुझको
ले गयी कहाँ किस दर पे

इस सेहरा में आ भटका
पूछूँ तुझको हर कंकर से
हर जगह में तुझको देखूं
पर मिलने को दिल तरसे

प्रेम सरोवर घट पे
में बैठा प्यास से भर के
पर तेरा ह्रदय न पिघला
तेरे नेह का मेह न बरसे

तू नीर गगरिया लेकर
आ रही है दूर डगर से
तृष्णा में भी सुख पाया
फिर मिलने को दिल तरसे

एक आलिंगन सा करके
रससिक्त करके मुझे भर दे
और जोड़ दे टूटे बंधन
अपने सुन्दर कोमल कर से

एक स्पर्श ही तेरा पा लूं
ये सोच के निकला घर से
तू दरस न जब तक देगी
न जाऊंगा मैं इस दर से

लौटा दे मेरा जीवन
ये प्रेम परस्पर कर के
फिर आजाये यूँ सावन
की दिल मिलने को न तरसे

1 comment:

  1. Wah! gehraayi hai par phir se doorie ki baat ki hai aapne :(
    na ho tanha ye dost
    milegi koi u want the most ;)

    tried my hands at it :D

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